Ajj Da Hukamnama Sahib Sri Darbar Sahib Amritsar Sahib, Harmandir Sahib Goldentemple, Morning Mukhwak, Date:- 02-10-20, Ang. 496
Hukamnama in Hindi With Meanings
गूजरी महला ५ ॥ मता करै पछम कै ताई पूरब ही लै जात ॥ खिन महि थापि उथापनहारा आपन हाथि मतात ॥१॥ सिआनप काहू कामि न आत ॥ जो अनरूपिओ ठाकुरि मेरै होइ रही उह बात ॥१॥ रहाउ ॥ देसु कमावन धन जोरन की मनसा बीचे निकसे सास ॥ लसकर नेब खवास सभ तिआगे जम पुरि ऊठि सिधास ॥२॥ होइ अनंनि मनहठ की द्रिड़ता आपस कउ जानात ॥ जो अनिंदु निंदु करि छोडिओ सोई फिरि फिरि खात ॥३॥ सहज सुभाइ भए किरपाला तिसु जन की काटी फास ॥ कहु नानक गुरु पूरा भेटिआ परवाणु गिरसत उदास ॥४॥४॥५॥ {पन्ना 496}
पद्अर्थ: मता = सलाह। पछम कै ताई = पश्चिम की तरफ जाने के लिए। कै ताई = के लिए। थापि = बना के स्थापित करके। उथापनहारा = नाश करने की ताकत रखने वाला। हाथि = हाथ में। मतात = मतांत, सलाहों का अंत, फैसला।1।
काहू कामि = किसी काम में। अनरूपिओ = मिथ ली, ठाठ ली। ठाकुरि मेरै = मेरे ठाकुर ने। होइ रही = हो के रहती है, जरूर होती है।1। रहाउ।
मनसा = कामना, इच्छा। बीचे = बीच में ही। निकसे = निकल जाते हैं। सास = सांस। लसकर = फौजें। नेब = नायब, अहिलकार। खवास = चौबदार। तिआगे = त्याग के, छोड़ के। जम पुरि = परलोक में।2।
अनंनि = (अनन्य) जिसने और जगहें छोड़ दी है। (माया त्याग के होय अनंनि)। द्रिढ़ता = मजबूती। आपस कउ = अपने आप को। जानात = (बड़ा) जनाता है। अनिंदु = ना निंदने योग्य।3।
सहज = (सह जायते इति सहज) अपना निजी। सुभाइ = प्रेम अनुसार। सहज सुभाइ = अपने निजी प्रेम अनुसार, अपने स्वाभाविक प्रेम से। भेटिआ = मिला।4।
अर्थ: (हे भाई! मनुष्य की अपनी) चतुराई किसी काम नहीं आती। जो बात मेरे ठाकुर ने मिथी होती है वही हो के रहती है।1। रहाउ।
हे भाई! मनुष्य पश्चिम की तरफ जाने की सलाह बनाता है, परमात्मा उसे पूर्व की ओर ले जाता है। हे भाई! परमात्मा एक छिन में पैदा करके नाश करने की ताकत रखने वाला है। हरेक फैसला उसने अपने हाथ में रखा होता है।1।
(देख, हे भाई!) और देशों पर कब्जा करने और धन एकत्र करने की लालसा में ही मनुष्य के प्राण निकल जाते हैं। फौजें, अहिलकार, चौबदार आदि सब को छोड़ कर वह परलोक चला जाता है। (उसकी अपनी सियानप धरी की धरी रह जाती है)।2।
(दूसरी तरफ देखो उसका हाल जो अपनी तरफ से दुनिया छोड़ चुका है) अपने मन के हठ की मजबूती के आसरे माया वाला पासा छोड़ के (गृहस्थ त्याग के, इसको बड़ा श्रेष्ठ काम समझ कर त्यागी बना हुआ वह मनुष्य) अपने आप को बड़ा जतलाता है। ये गृहस्थ निंदनीय नहीं था, पर इसे निंदनीय मान के इसे त्याग देता है। (त्याग के भी) बार-बार (गृहस्तियों से ही ले ले कर) खाता है।3।
(सो, ना धन-पदार्थ एकत्र करने वाली चतुराई किसी काम की है और ना ही त्याग को गुमान कोई लाभ पहुँचाता है) वह परमात्मा अपने स्वाभाविक प्यार की प्रेरणा से जिस मनुष्य पर दयावान होता है उस मनुष्य की (माया के मोह की) फाही काट देता है। हे नानक! कह– जिस मनुष्य को पूरा गुरू मिल जाता है वह गृहस्थ में रहता हुआ माया से निर्मोह हो के परमात्मा की हजूरी में कबूल हो जाता है।4।4।5।
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